ऊँ नमों भगवते वासुदेवाय जय श्री लक्ष्मीनारायण
माँ लक्ष्मीजी की शिव-निष्ठा
एक बार लीलामय भगवान विष्णु ने लक्ष्मी जी को भूलोक में अश्व्योनी में जन्म लेने का शाप दे दिया, भगवान कि प्रत्येक लीला में जो रहस्य होता है, उसको तो वे ही जानते है. श्री लक्ष्मी जी को इससे बहुत क्लेश हुआ, पर उनकी प्रार्थना पर भगवान विष्णु ने कहा - 'देवि! यद्यपि मेरा वचन अन्यथा तो हो नहीं सकता, तथापि कुछ काल तक तुम अश्व्योनी में रहोगी, पश्चात् मेरे समान ही तुम्हारे एक पुत्र उत्पन्न होगा . उस समय उस शाप से तुम्हारी मुक्ति होगी और फिर तुम मेरे पास आ जाओगी ।
लक्ष्मी जे ने कहा - हे आशुतोष! मेरे पतिदेव ने मुझे अश्व्योनी में जनम लेने का शाप दे दिया है, इस शाप का अंत पुत्र होने पर बताया है, वे वैकुण्ठ में निवास कर रहे है, हे महादेव! आपकी उपासना मैंने इसलिए की है की आपमें और श्री हरि में किंचिन्त मात्र भी भेद-भाव नहीं है. आप और वे एक ही है. केवल रूप भेद है, यह बात श्री हरि ने ही मुझे बताई थी .. आपका और उनका एकत्व जानकार ही मैंने आपकी आरधना की है. हे भगवान! यदि आप मुझपर प्रसन्न है तो मेरा यह दुःख दूर कीजिये आशुतोष भगवान शिव ने लक्ष्मी के इन वचनों को सुनकर बहुत प्रसन्न हुए और विष्णुदेव से इस विषये में प्रार्थना करने का वचन दिया और श्री हरि को प्राप्त करने तथा एक महान प्रकर्मशाली पुत्र प्राप्त करने का वर भी उन्हें प्रदान किया. भगवान शिव का सन्देश पाकर तथा देवि लक्ष्मी की स्तिथि जानकार भगवान विष्णु अश्व का रूप धारणकर लक्ष्मी जी के पास गये और कालान्तर में देवि लक्ष्मी को 'एकवीर' नामका पुत्र उत्पन्न हुआ, उसी से "हैहय-वंश" की उत्पति हुई. अनन्तर लक्ष्मी के शाप की निव्रती हो गई और वे दिव्या शरीर धारणकर भगवान के साथ वैकुण्ठ पधार गई. उनकी शिव-साधना सफल हो गई
ऊँ नमों भगवते वासुदेवाय जय श्री लक्ष्मीनारायण
0 comments:
Post a Comment